कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल पुथल मच जाए!
एक हिलोर इधर से आये, एक हिलोर उधर से आये,
प्राणों के लाले पड़ जाएँ, त्राहि त्राहि स्वर नभ में छाए,
नाश और सत्यानाशों का धुँआधार जग में छा जाए,
बरसे आग जलद जल जाएँ, भस्मसात भूधर हो जाएँ,
पाप पुण्य सद्सदभावों की धूल उड़ उठे दाएं-बायें,
नभ का वक्षस्थल फट जाए, तारे टूक टूक हो जाएँ,
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल पुथल मच जाए.
माता की छाती का अमृतमय पय काल-कूट हो जाए,
आखों का पानी सूखे, वे शोणित की घूंटे हो जाएँ,
एक ओर कायरता काँपे, गतानुगति विगलित हो जाए,
अंधे मूढ़ विचारों की वह अचल शिला विचलित हो जाए,
और दूसरी ओर कंपा देने वाला गर्जन उठ धाये,
अंतरिक्ष में एक उसी नाशक तर्जन की ध्वनि मंडराए,
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल पुथल मच जाए.
नियम और उपनियमों के ये बंधन टूक टूक हो जाएँ,
विश्वम्भर की पोषक वीणा के सब तार मूक हो जाएँ,
शांति दंड टूटे, उस महारुद्ध का सिंहासन थर्राए,
उसकी श्वासोच्छ्वास वाहिका विश्व प्रांगन में घेहराए,
नाश! नाश! हाँ, महानाश की प्रलयंकारी आँख खुल जाए,
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल पुथल मच जाए.
प्रिय पाठकगण, सादर अभिनंदन !
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